Wednesday, August 20, 2008

आज बरसी –शहनाई ख़ाँ साहब की

"अभी सच्चा सुर लगा ही कहॉं है ? उसी की तलाश में तो हम इतने बरस बजाते रहे। जब सच्चा सुर लगा गया तो समझिए हम पहुँच गए विश्वनाथ की शरण में।' ताज़िंदगी सुरों में रमने वाले भारतरत्न
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने ये बात अभी कुछ दिन पहले बनारस में एक साक्षात्कार में कही थी और २१ अगस्त की अलसुबह "शहनाई' वाकई विश्वनाथ शरणलीन हो गई। वे फ़कीरी तबीयत के ऐसे शहनाईनवाज़ थे, जिन्होंने जीवनभर संगीत और सिर्फ संगीत से अपनी कला का जादू पूरे संसार में फैलाया। उनकी सरलता और सादगी का ठाठ उनके बाजे में भी अभिव्यक्त होता रहा। हवाई यात्रा से हमेशा दूर रहने वाले बिस्मिल्लाह ख़ॉं साहब ने चाहे विदेशी धरती पर कम बजाया हो, लेकिन उनकी शहनाई के स्वर तो उनके जीते-जी ही वैश्विक संगीत का पर्याय बन चुके थे।

मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर शास्त्रीय संगीत का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। उस्ताद विलायत ख़ॉं के सितार और पं. वी.जी. जोग के वायलिन के साथ ख़ॉं साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल.पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़े। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ॉं के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि सिर्फ संगीत ही है जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने उनके शहनाई वादन पर आपत्ति ली। ख़ॉं साहब ने आँखें बद कीं और उस पर "अल्लाह हू' बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा - मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा "हराम' है। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए।सादे पहनावे में रहने वाले ख़ॉं साहब के बाजे में पहले पहल वह प्रेशर नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली, वर्जिश किए बिना सॉंस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा और उस्ताद हिदायत को नसीहत मानकर मुँह-अँधेरे गंगा घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है वे बरसों पूरे देश में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।

बजरी, चैती, झूला जैसी लोकधुनों में बाजे को ख़ॉं साहब ने अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत से नहीं देखा जाता था। ख़ॉं साहब की मॉं शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थी क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं। उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब ब्याह-शादी में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन ख़ॉं साहब के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है और उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं के जाने से एक पूरे संगीतमय युग का पटाक्षेप हो गया । मानो संगीत के सात "सुरों' में एक सुर कम हो गया। दुनिया अपनी फितरत में मशगूल है लेकिन लग रहा है हमारी रिवायत का एक दमकता मोती आज हमसे दूर चला गया है। उनके जाने के बावजूद ख़ॉं साहब के हज़ारों कैसेट्स-सीडी हमारे कानों में बहार, जैजैवंती और भैरवी के स्वरों का आभामंडल रचते रहेंगे, लेकिन शहाना ठहाके और बेफिक्र तबीयत वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं तो हमारे बीच नहीं होंगे। उन्हें तलाशने हमें महफ़िलों में नहीं बनारस के उन घाटों पर जाना होगा, शायद वहीं कहीं बज रही हो वह सुरीली मंगल-प्रभाती।

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4 comments:

Radhika Budhkar said...

स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिलाह खान साहब को मेरा नमन

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

वाह ! शहनाई इसी तरह गूँजती रहे ..खाँ साहब अमर रहेँ !
- लावण्या

Udan Tashtari said...

खान साहब को मेरा नमन!!

Unknown said...

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