बीता दिन पं. कुमार गंधर्व की याद दिलाता रहा. 12 जनवरी को ही हमसे विदा हुए थे कुमारजी. लेकिन विदा कहाँ हुए. वे तो पूरे ठाठ से अपनी रसपूर्ण गायकी के साथ हमारे मन एक जीवंत दस्तावेज़ बन मौजूद हैं. अठारह बरस बाद भी हम कुमारजी को भूले नहीं. कबाड़ख़ाना पर जीवनसिंह ठाकुर का सुन्दर आलेख तो जारी कर ही चुका था, मन में ही बसे कुमारजी जैसे प्रतिप्रश्न कर बैठे कि भाई विदा होने के दूसरे दिन परभात्या (मालवी शब्द जो प्रभाती का सुरीला अपभ्रंश है)नहीं होना चाहिये क्या. सो लीजिये कुमारजी की ही मान लेते हैं और सुनते हैं राग श्री में निबध्द तराना....अहा! क्या तो सुरों की फ़ैंक है और क्या मदमस्त लयकारी. छोटी छोटी तानों से कुमार कैसे खेलते हैं जैसे कोई तितली एक ही पौधे पर खिले एक फूल से दूसरे फूल की सैर कर लेती है.
रेकॉर्डंग छोटी से है लेकिन मनभावन और अदभुत भी.सुनिये तो ज़रा....(और हाँ समय हो तो कबाड़ख़ाना की सैर कल लीजियेगा;छोटा सा मगर अदभुत स्मृति-चित्र है)